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  • 1. बच्चों कैसे सिखाएं-पढ़ाएं कि कैसे सीखना-पढ़ना है? क्या इससे वे सीख पाएंगे?
    बच्चों को पढ़ने-सिखाने की जरूरत होती है क्या? वे अवलोकन और अनुकरण से सीखते हैं. अवलोकन के दौरान हर अच्छी-बुरी चीज से वे कुछ न कुछ सीखते ही हैं. बच्चे खिड़की से एकटक देखते रहते हैं, खिलौने तोड़ देते हैं, स्कूल की किताबें छोड़कर कुछ ऊटपटांग पढ़ते रहते हैं, हम जो कहते या बताते हैं, उस पर वे ध्यान नहीं देते. इन सब बातों की शिकायत करना निरर्थक है. बच्चे की कल्पनाशीलता और जिज्ञासा को अगर हम बनाए रखें, तो उन्हें यह अलग से बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि कैसे सीखा जाए. बढ़ती उम्र के बच्चों में यह गुणधर्म उन्हें सीखने में मदद करेगा.
  • 2. अगर हर बच्चा खास होता है, तो स्कूल की परीक्षा में मिलने वाले अंकों से क्या सिद्ध होता है?"
    क्या हर बच्चा खास नहीं होता? लेकिन, उनकी वह खासियत क्या खोजने की जरूरत नहीं है? वास्तव में शिक्षा सत्य को खोजने की प्रेरणा होती है. लेकिन, स्कूली शिक्षा एकरसता से भरी होती है. वह समावेशी नहीं होती. अभिभावकों का दुराग्रह है कि हर बच्चे को स्कूल द्वारा निर्धारित मापदंडों पर खरा उतरना चाहिए. आगे चलकर स्कूली-कॉलेजी शिक्षा में गणित और विज्ञान जैसे विषय तो तुलना और विभाजन बाड़ खड़ी कर देते हैं. इस छलनी की वजह से बच्चे अलग-अलग होते जाते हैं. बच्चे की जिज्ञासा जो साबित कर सकती है, वह कम या अधिक अंक साबित नहीं कर सकते.
  • 3. मौजूदा शिक्षा प्रणाली क्या समझदारी और संवेदनशीलता को बढ़ाती हैं?
    शिक्षा प्रणाली की अवधारणा क्या सिर्फ स्कूली शिक्षा पर ही लागू होती है? अभिभावकों में बच्चों के अंकों को बढ़ाने की होड़ दिखती है, पर क्या उनके भीतर विचारों की गुणवत्ता बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है? अगर बच्चों में वैचारिक गुणवत्ता बढ़ाने की प्रवृत्ति हो, तभी शिक्षा प्रणाली से कोई उम्मीद रखी जा सकती है. स्कूली या कॉलेजी शिक्षा को जरा अलग रखकर देखें, तो सीखने की प्रक्रिया बच्चों को आनंद से भरती है. ज्ञान अथवा निपुणता अथवा कौशल के साथ बच्चों में साहचर्य तथा सहानुभूति की भावना भी विकसित करने की आवश्यकता है. सहयोग की भावना के चलते अहंकार भी कम होने लगता है. इससे हम उन लोगों से नफरत नहीं करते, जो हमारे बारे में अलग नजरिया रखते हैं. सहशिक्षा से अन्य लोगों के अनुभवों, राय, तर्कों के अलावा उनके सुख-दु:ख से जुड़ने की आदत पड़ती है. यह सब काम शिक्षा करती है.
  • 4. क्या स्कूली शिक्षा में स्वतंत्र सोच की गुंजाइश है?
    न्यूटन, आर्कमिडीज, रवींद्रनाथ टैगोर, शेक्सपियर ने जो कुछ रचा, वह उनकी स्कूली शिक्षा का फल नहीं था. वह उनकी स्वतंत्र विचार करने की क्षमता का फल था. अगर आपको लगता है कि आपका बच्चा यूनिक होना चाहिए, तो माता-पिता होने की वजह से आपके प्रयास भी उतने ही यूनिक होने चाहिए. तयशुदा रास्ते हमें वहीं पहुंचाते हैं, जहां उन्हें पहुंचना होता है. अगर आपको लगता है कि हमें अलग रास्ता ढूँढना है, तो बच्चों को स्वतंत्र विचार करने का अवसर देना की सामर्थ्य होना चाहिए. उन्हें स्वतंत्र विचार करने देने के लिए हमें अपनी ताकत भी बढ़ानी होगी. ऐसी क्षमता होना अथवा न होने पर उसे विकसित करना कठिन नहीं है, पर उस दिशा में प्रयास करने की इच्छा होनी चाहिए.
  • 5. अनबॉक्स अन्य बॉक्सों से अलग कैसे है?
    आपको पढ़ाई और सीखने में फर्क समझना होगा. बच्चे अनायास सीख जाते हैं. वे कहां से क्या सीखेंगे, यह हमें समझने की जरूरत होती है. अनबॉक्स बच्चों की अवलोकन शक्ति, उनकी कल्पनाशक्ति, उनकी स्वप्रेरणा, उनमें मौजूद सहानुभूति जैसी सभी बातों की पड़ताल करता है और स्पेस तैयार करता है कि उनका विकास हो. वह माता-पिता को उनके सुप्त गुणों से परिचय करवाता है. अनबॉक्स आपको सिखाता नहीं है, यह सीखने की संभावना को खोल देता है.
  • 6. तकनीक का इस्तेमाल, पर उस पर निर्भर न होना"
    कस्टमाइजेशन : हर गतिविधि हस्तकला पर आधारित नहीं है, पर हस्तकला की सामग्री के साथ ही जुड़ी हुई है. इससे सामग्री पर निर्भरता कम होती है. मानवीय भूल प्रेरणादायी होती हैं और आत्मविश्वास बढ़ाती हैं. अनिश्चितता के कारण बच्चों को अपना रास्ता और तरीका चुनने में मदद मिलती है. चूंकि, गतिविधियां बिना किसी नियम-कायदे या समय सीमा के हैं, इसलिए बच्चे जो भी करते हैं, वह बेहतर ही होता है. इस विचार का जन्म भी इसी प्रक्रिया से होता है. यह कोई क्रैश कोर्स नहीं है. यह समय के साथ घटित होता रहता है. बॉक्स में दिया काम पूरा होने के बावजूद विचार प्रवाह जारी रहता है. विचार कभी नहीं रुकते और तमाम उम्र उनके मन में बने रहते हैं.
  • 7. एक समझदार नागरिक बनाने में शिक्षा का योगदान कैसे है?
    ज्ञान, निपुणता अथवा कौशल के साथ साहचर्य और सहानुभूति की भावना होना मानवता की निशानी है. सहयोग की भावना के चलते अहंकार भी कम होने लगता है. इससे हम उन लोगों से नफरत नहीं करते, जो हमारे बारे में अलग नजरिया रखते हैं. सहशिक्षा से अन्य लोगों के अनुभवों, राय, तर्कों के अलावा उनके सुख-दु:ख से जुड़ने की आदत पड़ती है. यह सब काम शिक्षा करती है.
  • 8. बच्चे की बुद्धि तीक्ष्ण करने के लिए क्या किया जाए?
    बढ़ती उम्र के बच्चों का दिमाग लगातार काम करता रहता है. उसमें जितनी धार लगाई जाएगी, वह उतना ही पैना होता जाएगा. उनकी ऊर्जा की बराबरी करना माता-पिता के लिए कठिन होता है. उनके मन में उपज रहे हरेक सवाल को धैर्यपूर्वक समझना और उनका उत्तर खोजने में माता-पिता मदद कर सकते हैं. बच्चों के आसपास स्वस्थ वातावरण रखें और उन्हें आनंद देने वाली चीजें दें. जो बच्चा स्वस्थ और खुश रहता है, उसकी बुद्धि का विकास सकारात्मक होने की गुंजाइश अधिक होती है.
  • 9. क्या मौजूदा शिक्षा प्रणाली संवेदनशील या समझदार बनाती है.
    मौजूदा शिक्षा प्रणाली समावेशी होने के बजाय छलनी लगाने के तरीके पर विश्वास करती है. इस वजह से स्कूलों में गुणात्मक विकास नहीं हो पाता. सीखने की प्रक्रिया मूलत: सुखद होती है. बच्चों के मन में मूलत: किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता. लेकिन, सामाजिक तानेबाने के चलते आगे चलकर उसे बोया जाता है. लेकिन, स्कूली शिक्षा के दौरान तुलना के बजाय अगर जानबूझकर अध्ययन को महत्व दिया जाए, तो मन में पहले से ही मौजूद सहानुभूति का भाव बना रहेगा.
  • 10. बच्चे पढ़ाई नहीं करना चाहते. ऐसी स्थिति में क्या किया जाए?
    बच्चे पढ़ाई से नहीं, तोतारटंत से इनकार करते हैं. वे पहाड़े रटते रहते हैं, कविता को जबरन कंठस्थ करने में लगे रहते हैं. यह पूरी प्रक्रिया बच्चों को बहुत झुंझलाहट भरी लगती है. बच्चों का मन कविता कंठस्थ करने में तब जरूर लगता है, जब उन्हें लय मिल जाए. गणित में अगर आंकड़ों से दोस्ती हो जाती है, तो उन्हें वह कठिन नहीं लगता. बच्चों की पढ़ाई चिंता का मुद्दा नहीं है, वह हमारी समझ का मुद्दा है. क्या आपको पढ़ाई करना पसंद था?
  • 11. बच्चों को सिखाने की बेस्ट मैथड (सबसे अच्छा तरीका) कौन सा है?
    सबसे अच्छे की चाह में हम इस बात को अनदेखा करते हैं कि बच्चों का क्या नुकसान हो रहा है. बच्चों को जो सहजता से उपलब्ध हो सकता है, वही उनके लिए ‘बेस्ट’ होता है. शैक्षणिक एक्टिविटी के नाम पर केवल साधन उपलब्ध करवाकर उनसे उम्मीद के मुताबिक नतीजे हासिल करवाना केवल तोतारटंत है. इसमें उनके भीतर पैदा होने वाली जिज्ञासा के लिए, अवलोकन और कल्पनाशीलता के लिए जगह नहीं होती. इस वजह से उनके भीतर सृजन का प्राकृतिक झरना सूखने लगता है. घर में आसानी से आसपास दिखने वाली हर वस्तु बच्चों के लिए साधन होता है. उनसे उनकी रचनात्मकता प्रकट होती है. साधन पर उनका अवलंबन और उनके इस्तेमाल से लक्ष्य प्राप्ति पहले ही तय कर ली जाए, तो क्या इसमें उनका ही नुकसान नहीं है?
  • 12. बच्चों की शिक्षा का आरंभ कब होना चाहिए?
    जिस क्षण से आप अपने आपको को माता-पिता के तौर पर सक्षम समझने लगेंगे, उस क्षण से ही बच्चों की शिक्षा की शुरुआत अपने आप ही हो जाती है. रट्टा लगाकर उसे नहीं किया जा सकता और करना भी नहीं चाहिए. आपको सतर्क होकर लालन-पालन करना है, बच्चों की शिक्षा के लिए प्रयत्न नहीं करना है.
  • 13. How many hours should a child study ?
    Study is not done in hours. Adolescents are constantly learning something. We do not put their learning in the category of 'education' because we have tightened education within the framework of school education. At this age, children's observation increases exponentially and their struggle to express what comes to mind increases. If we can't avoid the hindrances of children in school at this age, then their growth will be limited to this book knowledge. Are you willing to take this risk as a parent?
  • 14. बच्चों को कितने घंटे अध्ययन करना चाहिए?
    ध्ययन की माप घंटों से नहीं की जा सकती. बढ़ती उम्र के बच्चों तो लगातार कुछ न कुछ सीखते ही रहते हैं. हम इस तरह से सीखने को ‘शिक्षा’ के खाने में नहीं रखते, क्योंकि हमारे दिमाग में जमा-जकड़ा है कि स्कूली शिक्षा ही असली शिक्षा है. इस उम्र में बच्चों का अवलोकन तेज गति से बढ़ता रहता है और वे अपने मन में उमड़ रही चीजों को एक्सप्रेस करने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं. इस उम्र में बच्चों को स्कूली शिक्षा की घुट्टी को हमने अगर नहीं टाला, तो उनकी ग्रोथ किताबी ज्ञान तक सीमित हो जाएगी. क्या माता-पिता होने के नाते आप इस खतरे को उठाने के लिए तैयार हैं?
  • 15. एकेडेमिक्स और एजुकेशन में क्या अंतर है?
    स्कूलों में बच्चों को शैक्षणिक सत्रों में पढ़ाया जाता है. आसानी से न समझे, तो उन्हें रट्टा लगवाया जाता है. अगर बच्चे ने सवाल पूछ लिया कि ऐसा क्यों होता है? और गुरुजी को उसके सवाल का जवाब नहीं देते बना, तो डाँट-फटकार कर कह दिया जाता है कि ‘ये ऐसा ही होता है... याद रखना...’ इस तरह बच्चों को अगले शिक्षा सत्र में धकेला जाता रहता है. पढ़ाई का सीधा संबंध आकलन और समझ लेने से होता है. यह बात कक्षा की चाहरदीवार और स्कूल का बोझ उठाते-उठाते हम भूल ही गए हैं. सीखने और सिखाने में जो फर्क है, वही शैक्षणिक और शिक्षण के दरम्यान है. विद्या दरअसल परिणामोन्मुख होती है. यही कारण है कि वह प्रशिक्षण मात्र है.
  • 16. हर बच्चा क्या एक ही तरीके से सीख-पढ़ सकता है?
    हर बच्चा एक ही तरीके से सीख नहीं सकता, यह जानने के बावजूद हम परीक्षा की पद्धति एक जैसी रखते हैं. समान उम्र और समान ही कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के सीखने-पढ़ने का स्तर अलग-अलग होता है. उम्र के खास पायदान पर बच्चों में जिज्ञासा, अवलोकन, संवेदना का विकास और कल्पनाशीलता जैसे गुण विकसित होते हैं. यह सब आगे-पीछे, किसी में पहले, किसी में बाद में होता है. यह समझना उचित नहीं कि किसी की कल्पनाशक्ति अभी विकसित न हुई हो, तो वह प्रतियोगिता में पिछड़ गया. इसी तरह तीक्ष्ण बुद्धि वाले को विजेता मान लेने की कोई वजह नहीं है.
  • 17. शिक्षा और स्वस्थ समाज के बीच क्या संबंध है?
    बेशक, शिक्षा समाज में बदलाव लाती है. शिक्षा विचारों को मुक्त आकाश में भ्रमण का मौका देती है. शिक्षा से आत्मविश्वास बढ़ता है, सहानुभूति की भावना पैदा होती है. अधिकाधिक पढ़ना तर्कपूर्ण विचारों को खाद-पानी देता है. यही वजह है कि शिक्षा से स्वस्थ समाज गढ़ा जा सकता है. लेकिन, इस शिक्षा के मायने किताबी ज्ञान नहीं है. उम्र के दूसरे-तीसरे साल में ही बच्चों में सीखने के जो गुण विकसित होते हैं, उस दौरान उन्हें उचित दिशा और अवसर मिल गया, तो सब सध जाता है. शिक्षा में होड़ से बच्चों का विकास रुक जाता है. खेल-खेल में शिक्षा दी जा सके और हम बच्चों के गुणों का विकास कर पाए, तो बच्चे सजग और बुद्धिमान बन सकते हैं.
  • 18. प्रतिस्पर्धा खराब है, पर उससे कैसे बचा जाए?"
    प्रतिस्पर्धा खराब नहीं है. प्रतिस्पर्धी वातावरण बच्चों में छिपे गुणों को सामने लाता है. लेकिन, अगर प्रतिस्पर्धा अक्सर होड़ बन जाती है. अगर वह आगे चलकर कुछ विशिष्ट लोगों को अलग करके शेष में हीनता की भावना भर दे, तो उससे पैदा होनेवाला वातावरण खराब ही होगा. प्रतिस्पर्धा को टालना कोई मुद्दा नहीं है. प्रतिस्पर्धा से ईर्ष्या, राग-द्वेष, घृणा श्रेष्ठता और अहंकार को निकालकर खेलभावना के अलावा दूसरों के कौशल, प्रयास और मेहनत की सराहना करने की प्रवृत्ति विकसित होनी चाहिए. क्या ऐसा करना शिक्षा का ही भाग नहीं है? जो जीता, उससे प्रेरणा प्राप्त करना आना चाहिए.
  • 19. क्या स्कूल में सफलता पाना ही सब कुछ है?
    दुर्भाग्य से ऐसा होता दिख रहा है. प्रगति की हठ में सफलता की अवधारणा काफी भौतिकवादी हो गई है. हम अध्ययन को अंकों से, अंकों को अवसर से, अवसर को धन से और धन को सफलता से जोड़ते हैं. जो कुछ अनोखा कर दिखाते हैं, हम उनकी प्रशंसा करते हैं, पर जो साधारण विचार हमारी बुद्धि को ढँक लेता है, वह है कि ‘राणा प्रताप पैदा हों, पर पड़ोसी के घर में.’’ वास्तव में हमें ‘सफलता’ की मौजूदा अवधारणा को बदलने की जरूरत है. हमें ‘सफलता’ के असली रहस्य को सम समझने की दृष्टि खुद तथा बच्चों में विकसित करने की जरूरत है. बच्चों में वह समझदारी पैदा हो गई, तो हम संभवत: उसे ‘सफलता’ का पैमाना मान पाएंगे! लेकिन, फिर भी यह एक संभावना भरा सवाल ही है.
  • 20. कितनी उम्र में बच्चों को क्या पढ़ाया जाना चाहिए?
    बच्चों को क्या पढ़ाया जाए, इस असमंजस के बजाय यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों के पास क्या है. माता-पिता होने के नाते आपको अपना अवलोकन बढ़ाने की जरूरत है. बच्चों में जिज्ञासा, तन्मयता, उनके हाथों और उंगलियों के संचालन की बारीकियां, उन पर नियंत्रण पाने की उनकी कोशिश, आकृतियों और रंग से उनका रिश्ता यानी दृश्यभाषा... इन सभी बातों को हमें सिर्फ निखारना है. हरेक बच्चे का बढ़ना उसके आसपास के वातावरण के मुताबिक ही होता है. क्या आप किसी पौधे को खींच-तानकर पेड़ बना सकते हैं?
  • 21. स्कूली सफलता क्या आनंदपूर्ण जीवनशैली की गारंटी देता है?
    हमें पहले सफलता की अवधारणा को समझना पड़ेगा. आनंद की प्राप्ति ही असली सफलता का पैमाना है. स्कूली शिक्षा में बच्चों को आनंद आता हो, तो उसमें मिलने वाली सफलता भी उन्हें आनंद प्रदान करेगी. लेकिन, असलियत में ऐसा होते दिखता नहीं. माता-पिता को उनका हर बच्चा खास होता है. स्कूल में होशियार, तेज बच्चे अलग और सीखने-पढ़ने में कमजोर बच्चे अलग श्रेणी में डाल दिए जाते हैं. यह विभाजन बच्चों में आत्मविश्वास और स्कूल से उनके लगाव को लगातार कम करता जाता है. ऐसी शिक्षा और उससे मिली सफलता आनंददायक जीवनशैली की गारंटी कैसे हो सकती है?
  • 22. स्कूली परीक्षा निष्पक्ष चयन की गारंटी देती है?
    स्कूली परीक्षा कभी निष्पक्ष चयन नहीं कर सकती है. इसकी वजह यह है कि हर बच्चे के विकास के चरण समान नहीं होते, लेकिन परीक्षा पद्धति के चरण तय हैं और सभी के लिए समान हैं. परीक्षा बच्चों का विषय के अनुसार वर्गीकरण करती है, उनके गुण अथवा कौशल के मुताबिक नहीं. ऐसे में परीक्षा से किया जानेवाला चयन निष्पक्ष कैसे होगा?
  • 23. स्कूली शिक्षा ही करियर तय करती है?
    हमने शिक्षा को कंपार्टमेंट में बाँट दिया है. उसकी वजह से करियर के अवसर भी श्रेणियों में बँट गए हैं. विमान का डिजाइन बनाना बेहद रचनात्मक काम है, पर उसे कलाकृति के बजाय वैज्ञानिक अनुसंधान माना जाता है. शिल्प उकेरते हुए हाथ का दबाव, शिल्प के कोण एवं अन्य बारीकियां विज्ञान से निर्मित कलाकृतियां नहीं मानी जातीं, बल्कि कला मानी जाती हैं. हम जब मानने लगते हैं कि मनुष्य के गुणों का परिमाण नहीं होता, बल्कि पाठ्यक्रम का ही पैमाना होता है, तो स्कूली शिक्षा तथाकथित करियर बनाती है. वास्तव में मनुष्य का कौशल ही उसका करियर तय कर सकता है.
  • 24. शिक्षा की जिम्मेदारी केवल स्कूलों की ही क्यों?
    विकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए किसी वक्त हमने आउटसोर्सिंग की अवधारणा को स्वीकार्य कर लिया. आहार और शारीरिक श्रम से खुद को सेहतमंद बनाए रखने की अनिवार्यता को हमने चिकित्सा क्षेत्र को आउटसोर्स कर दिया. अपने समाज का विकास हमने एनजीओ को सौंप दिया. देश का कामकाज, प्रशासन राजनीतिज्ञों के भरोसे छोड़ दिया. आपसी झगड़ों और मतभेदों को मिल-बैठकर सुलझाने की जगह न्याय प्रणाली पर निर्भर हो गए. इसी तरह अपने गली-मोहल्ले, परिवार, मित्र-इष्टजनों से सीखना छोड़कर हमने यह जिम्मेदारी शिक्षा व्यवस्था पर डाल दी. अब वह वक्त आ गया है, जब हम इन सभी खतरों पर सोचें-विचारें और कोई उपाय निकालें. यह काम क्या हम साथ मिलकर कर सकते हैं? हम तो कर ही रहे हैं... आप भी सहभागी बनें.
  • 25. तुलना की वजह से बच्चों में प्रतियोगिता की भावना आती है?
    हमारे दिमाग में तुलना को लेकर अमूमन दो चीजें होती हैं. पहली तुलना की वजह से पक्का इरादा, दृढ़ता अथवा प्रतिबद्धता आती है. दूसरा, तुलना की वजह से हीनभावना आती है, आत्मविश्वास नष्ट होता है और रचनात्मकता खत्म होती है. इस वजह से तुलना शुरू होने से पहले बच्चों के मनोबल पर काम करना जरूरी है. बच्चे में इतनी क्षमता या कौशल आ जाना चाहिए कि जब तुलना हो, तो वह उसे सकारात्मक लगे. तुलनात्मक विवेचना बढ़ाने की जरूरत है, ताकि खुद तुलना की जा सके, ना कि दूसरे करें.
  • 26. असली शिक्षा के मायने क्या हैं?
    जो शिक्षा आनंद प्रदान करती है, वही असली शिक्षा है. जिज्ञासा को शांत करने वाली प्रक्रिया शिक्षा है.
  • 27. शिक्षा प्रक्रिया का केंद्रबिंदु विद्यार्थी हैं?
    दुर्योग से स्कूली वातावरण में इस सवाल का जवाब न में है. हमारी शिषा शिक्षक केंद्रित, परीक्षा केंद्रित और अंक केंद्रित है. इस प्रणाली में पाठ्यक्रम और मूल्यांकन उतना ही होता है, जितना शिक्षक संभाल पाएं. पूरी शिक्षा प्रक्रिया में यह विचार नदारत है कि विद्यार्थियों की क्षमता अथवा उनके कौशल का मूल्यांकन करने लायक पाठ्यक्रम क्यों न रखा जाए.
  • 28. मौजूदा शिक्षा व्यवस्था क्या समयातीत हो चुकी है?
    बिल्कुल. और वह होती ही रहेगी. परिवर्तन की गति बढ़ गई है. प्रौद्योगिकी तेजी से बढ़ रही है. शिक्षा पद्धति का विकास उस मान से बेहद सुस्त है. अब भी हमने प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक जैसे पायदान तय कर रखे हैं. पद्धति थोड़ी-बहुत बदली हैं, पर अब भी हमने शिक्षा को सर्वसमावेशी बनाने में सफलता अर्जित नहीं की है. बढ़ती उम्र के बच्चों पर शिक्षा, पाठ्यक्रम, प्रतिस्पर्धा का बोझ डालने के बजाय उन्हें आनंदित, प्रफुल्लित करने वाली विकास पद्धति स्वीकार करने का साहस और समझ अब भी हमारे भीतर पैदा नहीं हुई है.
  • 29. बच्चों को जीवनशिक्षा देने के लिए मुझे क्या करना होगा?
    बच्चों को स्कूली शिक्षा दिलाने के लिए जितनी कठिनाई और प्रयास हम करते हैं, उतने ही बच्चों को जीवनशिक्षा देने के लिए करने होंगे. बच्चों को अपने साथ ही बड़े होने दीजिए. बच्चों की समयसारिणी स्कूल की समयसारिणी की तुलना में काफी सरल होती है. माता-पिता सहसा इस बात के लिए तैयार नहीं होते कि स्कूल के दिनों में भी उन्हें कहीं सैर-सपाटे के लिए ले जाया जाए, अथवा घर आए मेहमानों से मेलजोल के लिए छुट्टी ले ली जाए. घर में वैवाहिक कार्य तक बच्चों की परीक्षा की तारीखें देखकर तय किए जाते हैं. स्कूल को विभिन्न विषयों का अध्ययन करनवाला, परीा करवाने वाला और उसके हिसाब से बच्चों का मूल्यांकन करने वाली जगह समझने के बजाय उसे बच्चों के हमउम्र दोस्तों-सहेलियोन के साथ खेलने, पढ़ने, लड़ने-झगड़ने, लेन-देन करने और बुनियादी कौशल को व्यक्त करने तथा परस्पर सहयोग की भावना जागृत करने वाली जगह ही माना जाए. यह समझ में आ गया, तो बच्चों का जीवनशिक्षण आपके साथ ही होगा.
  • 30. बिना परीक्षा के सफलता को कैसे आंका जाएगा?
    परीक्षा यानी मूल्यांकन. किसी विषय के अध्ययन के दौरान किसी कोई बात पहले समझ आती है और किसी को बाद में. देर से समझने वाला मूल्यांकन में पीछे डाल दिया जाता है और उस पर ‘बुद्धू’ होने की मुहर लगा दी जाती है. ऐसी परीक्षा किस काम की? हरेक का मूल्यांकन अगर यह समझकर किया जाए कि कौन सा बच्चा किस विषय में कुशल है, तो जो नतीजा सामने आने की उम्मीद है, वह यह कि एक कक्षा में सभी बच्चे एक ही स्तर पर हैं.
  • 31. होम एजुकेशन यह वक्त की ज़रूरत है?  घर में स्कूल का मतलब होम एजुकेशन होता है क्या?
    स्कूल के अलावा भी बच्चा शिक्षा ग्रहण करता है. घर में भी बच्चा कुछ न कुछ सीखता ही है. बच्चे अपने आसपास के इलाके से ऐसी कई बातें सीखते हैं, जो स्कूल के मूल्यांकन की पद्धति से मापी नहीं जा सकतीं. बच्चे जो सीखते हैं, वह उनकी अभिव्यक्ति में नजर आता है. उसको समझने के लिए दृष्टि विकसित करनी पड़ती है. जो स्वाभाविक हैं और मौलिक है, उसे अवधारणा के सांचे में बैठाकर हम खुश होने लगते हैं. यानी ‘होम एजुकेशन’ जैसा कुछ अलग पेश किए जाने जरूरत नहीं है.
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